Monday, 22 October 2012

चेतना की झील का कमल!

जयकुमार राणा   Monday October 22, 2012

रोज की तरह आज भी सूरज पहाड़ी के पीछे अस्त हो रहा था. पक्षियों के झुंड चल पड़े थे वापस-अपने-अपने नीड़ों की तरफ. सामने पहाड़ी के पार्श्व भाग से अभी भी सूरज की लालिमा आकाश में  रंगीन छटा बिखेर रही थी. अंधेरा होने में अभी देर थी और प्रकाश नींद की गोद में जाने की तैयारी कर रहा था.  हवा भी अपनी रफ्तार को विराम दे  चुकी थी. आसमान सदा की तरह निरंजन, निर्बाध, शांत और सहजं मगर आज भी वह जीवन के अर्थ को खोजता अशान्त और  तनावग्रस्त था.  शायद जीवन से ज्यादा उत्सुकता उसे जीवन के अर्थ को जानने में थी.

वह जो खोजता था उसे अभी नही मिला था. उसकी प्रतीति उसे कई बर हुई थी मगर वह उसे सहेज कहाँ पाया था. जिसे वह खोज रहा था वह उसके सामने खड़ा था मगर वह उसे स्वीकार नही कर पाया था. अभी भी वह सोचता था 'क्या यही है जिसे में खोज रहा हूँ?'. और वह निर्णय नही कर पाया था. कहीं न कहीं उसके मन की गहराइयों से उसे लगता था की वह अभी बहुत दूर है. उसकी हालत उस आदमी जैसी थी जो चौराहे पर खड़ा अपने गंतव्य की तरफ इशारा कर रहे दिशा सूचक को देखने के बाद भी  घूम-घूम कर अन्य रास्तों की तरफ देखता है.  रोज वह उस चौराहे पर खड़ा होता और वापस लौट जाता. 

आज इस पहाड़ी पर खड़े-खड़े उसकी जीवन यात्रा का अक्स उसके मन के दर्पण में बनाता गया.  उसे यद आया वह दिन जब वह एक अदृश्य डोर में बंधा अपने गुरु के आश्रम में आया था.  कुशाग्र बुद्धि का मालिक वह गुरु चरणों में बैठ कर ज्ञान अर्जित कर रहा था. तर्क में निपुण वह बहुत जल्दी ध्यान, योग, प्रेम व भक्ति के सूत्रों को आत्मसात कर लेता था.  गुरु रोज ताओ, जैन, बौध, सूफ़ी दर्शन  एवं सांख्य  के गहन सूत्रों का प्रतिपादन कर रहे थे . रोज उसे लगता की उसने पा लिया, जिसे जानना था उसे जान लिया लेकिन फिर कुछ समय बाद उसे लगता की वह वहीं खड़ा है जहाँ से चला था.  शब्द और शास्त्र उसे कंठस्थ होते गये, उसकी वाणी में एक माधुर्य का जन्म हुआ, उसके शैली ऐसी सुमधुर बनती गयी कि दूसरे साधक प्राय उससे प्रामर्श लेते एवं गूढ़ सूत्रों की व्याख्या करने को कहते जिसे वह बड़ी सरलता से करता. वह प्राय कम बोलता धीर-गंभीर रहता और यदा कदा विनोद के क्षणों में खूब हंसता हंसाता. 

लेकिन क्या यही सब उसने चाहा था?  भीतर उसे कहीं लगता था की यह सारा ज्ञान शाब्दिक है, अंतरक्रान्ति की कली अभी  फूल कहाँ बन पायी है! जब सांसारिक हवा के थपेड़े उसके चित की झील में तूफान उठाते तब उसे इसकी साफ प्रतीति होती. ध्यान, प्रेम और भक्ति के सारे सूत्र उसे कहीं सहारा न दे पाते.  लेकिन एक बात जो उसे दूसरों से अलग करती थी वह था उसका अपने अंतर्द्वंद के प्रति होश. उसे धीरे-धीरे अपने मन के अंदर उठे द्वंद के प्रति साक्षी होने की कला आ गयी थी.  वह जानता था कि उसे  बहुत कुछ मिला है  और वह अपनी मंजिल के अत्यंत करीब है.  लेकिन अभी भी जो चीज उसे परेशान कर रही थी वह था उसके अंदर द्वंद का स्त्रोत! उसे समझ नही आ रहा था उसके मन में यह द्वंद पैदा कैसे हो रहा है. 

उसे याद है जब भक्ति योग पर बोलते हुए गुरु ने कहा था - 'प्रेम का पहला ही कदम है नबी-ए-मंजिल' . गुरु ने कहा था - 'भक्ति है परमात्मा से प्रेम' लेकिन जिसे अभी जाना ही नहीं उसे प्रेम कैसे करें? वह समझ ही नही पाता की जब गुरु की  नजरअपने शिष्यों पर पड़ती है तो उसमे परमात्मा के सिवाय और क्या बरसता है! यही था जिसे गुरु शब्दों से इशारा करके नजरों से कह रहे थे. मगर इस बारिश में भीग कर भी वह सूखा ही रह जाता था.  गुरु ने कितनी बर सांख्य योग पर बोलते हुए कहा था - 'एको विशुद्ध बोधो इति' ! मगर यह महावाक्य भी उसके मन की सीमा को कहाँ भेद पाया था! गुरु कहते थे - 'तुम शरीर और मन के साथ तादात्म्य को तोडो और अपने भीतर विराजमान चैतन्य से सम्बंध स्थापित करो'. उसे समझ आ चुका था की यहाँ से आगे उसे स्वयं रास्ता तय करना है. गुरु जितना उसे बता सकते थे बता चुके  और उसे साफ प्रतीत हो चुका था की उसका बन्धन उसके सिवाय कोई दूसरा भी नही है.  वह जब चाहे अपने को मुक्त कर सकता था!  वह जनता था की वह स्वयम् ही बन्धन है और स्वयम् ही मुक्ति भी मगर फिर भी मुक्ति के लिये छटपटाहट ....!

यह सोचते-सोचते अचानक उसके मन का चाक रुका और साथ ही रुक गया   उसका  हाथ जो अभी तक यंत्रवत सामने पानी के गड्ढे में कंकर फैंक रहा था.  हाथ के साथ साथ उसके भीतर भी कुछ रुक गया. गड्ढे में केन्द्र से परिधि की तरफ जाती लहरें धीरे-धीरे विरल से विरलतर होती जा रही थी और फिर अचानक झील पूरी तरह शांत हो गयी.
























बाहरी झील के साथ-साथ उसके चित की झील भी शांत होती गयी अब वहां कोई लहर नही थी. वहां कुछ था तो शांत, निरंजन चिदाकाश. अस्त होते सूर्य और घरों को लौटते पक्षियों के साथ ही वह भी अपने घर में प्रवेश कर चुका था.  और फिर जो वह हंसने लगा तो हंसता ही चला गया. उसकी हंसी पूरी वादी में गूँज रही थी. इस हंसी के साथ उसकी आँखों से रह-रह कर आंसू भी बह रहे थे. जिस पेड़ के नीचे वह बैठा था वहां वह था ही नही मगर ऐसी कोई जगह नही थी जहाँ वह नही था. वह था भी और नही भी था. फिर अचानक कुछ देर बाद हंसी की गूँज शांत होती गयी.  और जब वह हवा पर सवार होकर वापस अपने घर लौट रहा था तो आसमान में झिलमिल करते तारे उसके पथ को प्रकाशित कर रहे थे.

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